
श्रीमद् भगवद् गीता के पहले अध्याय में महाभारत युद्ध के पहले दिन अर्जुन ने श्रीकृष्ण से अपना रथ युद्ध भूमि के बीच में ले जाने के लिए कहा था। श्रीकृष्ण ने रथ आगे बढ़ाया और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने जब कौरव सेना में अपने कुटुम्ब के लोग देखे तो वह निराश हो गए थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि मैं युद्ध नहीं चाहता। मैं संन्यास लेना चाहता हूं। अपने कुंटुम्ब के लोगों को मारकर मिलने वाला राज्य मेरे लिए किसी काम का नहीं है।
अर्जुन ने जब युद्ध के लिए मना किया तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीमद् भगवद् गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो लोग कर्म नहीं करते हैं, अपने कर्तव्य से भागते हैं, वे कायर होते हैं। ऐसे लोगों को घर-परिवार और समाज में सम्मान नहीं मिलता, बल्कि इन्हें अपमानित होना पड़ सकता है।
गीता के पहले अध्याय में श्रीकृष्ण मौन थे। अर्जुन श्रीकृष्ण से लगातार प्रश्न कर रहे थे। युद्ध न करने के निर्णय को सही बताते हुए अपने तर्क दे रहे थे। लेकिन, श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कुछ नहीं कहा। श्रीकृष्ण का मौन देखकर अर्जुन की आंखों से आंसू बहने लगे तब भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।
जब तक व्यक्ति स्वयं को बुद्धिमान मानता है और व्यर्थ तर्क देता है, तब तक भगवान मौन रहते हैं। लेकिन, जब व्यक्ति अहंकार छोड़कर भगवान की शरण में चला जाता है, तब वे भक्त के सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं। जब हम अहंकार छोड़ देते हैं, तब ही भगवान की कृपा मिलती है। अर्जुन की आंखों में जब आंसू आ गए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन के अज्ञान को दूर करने के लिए उपदेश दिया। गीता में भगवान ने अर्जुन को कर्म और कर्तव्य का महत्व समझाया।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि उठो और अपना कर्म करो। सभी तरह के मोह का त्याग करो और युद्ध करो।
अर्जुन ने कहा कि हे मधुसूदन, आप ही बताए मैं भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य पर प्रहार कैसे करूं? मैं धृतराष्ट्र के संबंधियों पर प्रहार कैसे कर सकता हूं? इन्हें मारकर मैं धन प्राप्त नहीं करना चाहता।
अर्जुन के इन प्रश्नों के उत्तर में श्रीकृष्ण बोलें कि हमें शोक न करने योग्य लोगों के लिए शोक नहीं करना चाहिए। जो लोग अधर्म का साथ देते हैं, उनके लिए किसी तरह का दुख मन में नहीं होना चाहिए। इसीलिए तुम्हें ये युद्ध करना है।
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