
श्रीराम और सीता की भेंट स्वयंवर से पहले भी एक बार हुई थी। इस संबंध में श्रीरामचरित मानस के बालकांड में प्रसंग बताया गया है। इस प्रसंग के अनुसार राक्षसी ताड़का की वजह से सभी ऋषियों को हवन आदि पूजन करने में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। तब विश्वामित्र अयोध्या पहुंचे।
विश्वामित्र ने राजा दशरथ से श्रीराम और लक्ष्मण को उनके साथ भेजने का निवेदन किया। राजा दशरथ ऋषि की बात टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने राम-लक्ष्मण को ऋषि के साथ जाने की आज्ञा दे दी।
श्रीराम-लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ वन में पहुंचे तो वहां राक्षसी ताड़का आ गई। विश्वामित्र के कहने पर श्रीराम ने ताड़का का वध कर दिया। इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुंचे। जनकपुरी में सीता के स्वयंवर का आयोजन होना था।
राजा जनक ने विश्वामित्र और श्रीराम-लक्ष्मण के लिए रहने का प्रबंध किया। अगले दिन ऋषि विश्वामित्र को पूजा के फूल चाहिए थे। तब श्रीराम और लक्ष्मण राजा जनक के महल के बाग में फूल में लेने पहुंचे। उस समय देवी सीता भी वहां आई हुई थीं।
यहां श्रीराम और सीता ने एक-दूसरे को देखा। सीता श्रीराम को निहारती रहीं। श्रीराम भी सीता को देखकर प्रसन्न हुए। इस संबंध में श्रीरामचरित मानस में लिखा है कि-
देखि सीय सोभा सुखु पावा। ह्रदयं सराहत बचनु न आवा।।
जनु बिरंचि जब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहं प्रगटि देखाई।।
अर्थ- सीताजी को शोभा देखकर श्रीराम ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उनकी सराहना करते हैं, लेकिन मुख से वचन नहीं निकलते। मानों ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान बनाकर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो।
सीता ने देवी पार्वती से की प्रार्थना
देवी सीता माता पार्वती का पूजन करने मंदिर पहुंचीं। पूजा में उन्होंने श्रीराम को पति रूप में पाने की कामना की। अगले दिन स्वयंवर हुआ। स्वयंवर में श्रीराम ने ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे तो वह धनुष टूट गया। इसके बाद सीता और श्रीराम को विवाह हुआ।
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