
किसी भी काम में तब तक सुख और शांति नहीं मिल सकती, जब तक कि उस काम को बोझ मानकर किया जाता है। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है। प्रचलित कथा के अनुसार पुराने समय में एक संत अपने शिष्य के साथ तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। रास्ते में थकान होने पर वे एक गांव में रुके।
गांव में संत ने देखा कि वहां निर्माण कार्य चल रहा है। वहां काम कर रहे एक मजदूर से संत ने पूछा कि भाई यहां क्या बन रहा है? मजदूर ने चिढ़कर कहा कि मुझे नहीं मालूम। मुझे मेरा काम करने दो।
संत ने वहां से आगे बढ़े और दूसरे मजदूर से पूछा। दूसरे व्यक्ति ने कहा कि बाबा मुझे इस बात से क्या मतलब कि यहां क्या बनेगा। मुझे तो रोज के सौ रुपए मिल जाते हैं। मैं तो सौ रुपए के लिए काम कर रहा हूं।
संत को दूसरे मजदूर से भी अपने प्रश्न का जवाब नहीं मिला। तब वे तीसरे मजदूर के पास पहुंचे। वह मजदूर अपने काम में खोया हुआ था। संत ने उससे भी यही प्रश्न पूछा कि यहां क्या बनेगा?
तीसरे मजदूर ने कहा कि यहां मंदिर बन रहा है। गांव में मंदिर नहीं था तो सभी को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। अब ये मंदिर बन जाएगा तो गांव के लोगों को दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं होगी। संत ने उससे पूछा कि तुम अपने काम से खुश हो?
मजदूर बोला कि गुरुजी मुझे इस काम में आनंद मिलता है। छेनी-हथौड़े की आवाज मुझे संगीत की तरह लगती है। मंदिर के खंभों को तराशने में मुझे सुख मिलता है।
संत ने अपने शिष्य से कहा कि यही जीवन में सुख-शांति पाने का मूल सूत्र है। जो लोग पहले और दूसरे मजदूर की तरह अपने काम को बोझ मानते हैं, वे कभी भी सुखी नहीं रह पाते हैं। तीसरे मजदूर की वजह अपने काम में आनंद खोजने वाले लोग हमेशा सुखी रहते हैं। ऐसे लोगों के जीवन में ही शांति रहती है।
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