
कहानी- स्वामी विवेकानंद ने एक बार विचार किया कि मुझे धर्म और आध्यात्म से जुड़ना है। मुझे सबकुछ छोड़कर हिमालय की किसी गुफा में बैठकर चिंतन और ध्यान करना चाहिए। उन्होंने इस बात की घोषणा भी कर दी।
ये बात रामकृष्ण परमहंस को मालूम हुई तो उन्होंने विवेकानंद को बुलाया और कहा, 'नरेंद्र, हिमालय क्यों जाना चाहते हो?'
विवेकानंद बोले, 'वहां तपस्या करूंगा।'
रामकृष्ण परमहंस ने समझाया, 'तुम योग्य हो, तपस्या भी अच्छी कर लोगे, लेकिन ऐसी तपस्या का क्या फायदा? इस संसार में और तुम्हारे आसपास जो लोग हैं, उनमें से कई लोग भूखे मर रहे हैं। कोई अनपढ़ है। कोई किसी की गुलामी कर रहा है। कोई अशांत है। कई समस्याएं आज मनुष्य जीवन में चल रही हैं। तुम इन समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा हिमालय में अकेले बैठकर तप करने की बात कर रहे हो। क्या तुम्हारी आत्मा और परमात्मा ऐसी तपस्या को स्वीकार करेगा?
अगर तुम सच में तपस्या करना चाहते हो तो अपनी योग्यता को उन लोगों की सेवा में लगाओ, जो असमर्थ हैं। गरीब और असहाय की सेवा करना, अपने आप में बहुत बड़ी तपस्या है। परमात्मा भी इससे प्रसन्न होते हैं।
सार्वजनिक जीवन में दूसरों के भले के लिए जो तप और ताकत लगती है, वह अकेले में नहीं लग पाती है। अकेले में तो तुम हिमालय की गुफा में बैठकर जो चाहे कर सकते हो। सबके साथ करो, सबके सामने करो।'
परमहंसजी की ये बातें सुनने के बाद विवेकानंदजी ने संकल्प लिया कि अब से मेरा जीवन सार्वजनिक हित के लिए होगा।
सीख- अगर हम अपनी योग्यता और ताकत का उपयोग दूसरों के हित में करेंगे तो इससे समाज कल्याण भी होगा और परमात्मा की भक्ति भी हो जाएगी। इसीलिए जरूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
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